बुधवार, दिसंबर 24, 2008

" कंधमाल के बहाने से "

"कंधमाल के बहाने से "

मैं अभी भी नही जानता कि कंधमाल उडीसा के किस हिस्से में है |बैठे ठाले13 अक्टोबर 2008 दिन सोमवार के दैनिकजागरण समाचार पत्र का सम्पादकीय पृष्ट हाथ लग गया,खोलने परदो लोग दिखे |पहले कोई इतिहास के परोफेसर श्री विश्वमय पति दिखे बड़ा सा बैनर " हिन्दू नही है उडीसा के आदिवासी " लगा था ,पहले तो लगा कि ज्ञान चक्षु खोलक इस ब्रांड नाम का किसी अंजन का प्रचार -प्रसार किया जा रहा है ,कुछ ऐसा था भी और नही भी था ,अंजन की बिक्री ना हो कर अपनी विचार धारा के द्वारा वे भारतवासियों के ज्ञानचक्षु ही खोलना चाहते थे |श्रीविश्वमय जी अपनी विशेष कक्षा लगाए हुए थे जिसकाविचार बिन्दु ही उस बैनर पर लिखा था |दूसरे दिखे अपन के जाने पहचाने श्री स्वपनदासगुप्ता ,उन्हों ने भी कंधमाल का टिकट कटा रखा था |

जहाँ तक मुझे याद आता है जब मैं बच्चा था उस समय हमारे शहर से देश की राजधानी या देश के दिल यानी कि 'दिल्ली ' जाने के लिए ट्रेन के दो रूट हुआ करते थे ; एक वाया सहारनपुर और दूसरा मुरादाबाद हो कर , जहाँ ट्रेन बदलनी पड़ती थीं ; एक ट्रेन नई -दिल्ली या सच कहूं तो न्यू -डेल्ही तो दूसरी पुरानी दिल्ली पहुंचाती थी इस विवरण का उद्देश्य मात्र आप को यह बताना है कि उसी प्रकार भारतीय इतिहास के अध्ययन के दो माध्यम है,पहला माध्यंम भारतीय वांग्मय हमारे पुराण ,प्राचीन कहावतें- किवदंतियां तथा हमारी वे पारंपरिक कथाएं जो दादी नानीयाँ हमें हमारे बचपन में सुनाया करती थीं ; औरइसी के द्वारा ,इन कथाओं में छिपे हमारे इतिहास का अगली पीढी को पता लगता था , वह हमें हस्तांतरित भी हो जाता तथा अगली पीढी को संस्कारित कराने का कार्यभी यही कथाएं हीं करती थी , इनमें अधिकांशतः अलिखित हीं हुआ करतीं थीं,इन्हे भी 'श्रुतियां ' पुकारें तो अनुचित नही होगा |

" वैसे अब नानी दादीयों का युग तो रह नही गया है ,अब इसकी जिम्मेदारी टी वी सीरियल बनाने वालों यथा रामा नन्द सागर और बी आर चोपडा की कंपनियों ने उठा ली है |"

यह तो हुई पुरानीदिल्ली स्टेशन पहुचने वाली ट्रेन की बात |अबबात करतें हैं नई दिल्ली या न्यू डेल्ही स्टेशन पहुँच ने की बात , यह तोप्रतीक मात्र है ,इसबात पर जोर देने के लिए कि भारतीय इतिहास को पढ़ने एवं
जानने की दूसरी राह मैक्समूलर के द्वारा दिया ब्रह्म ज्ञान ;कुछ लोगों कोभारतीय इतिहास का वही अन्तिम सच लगता है || जब हम यहीं पैदा होकर पूरेजीवन भर अपनी रस्मों परम्पराओं को देखते सुनते और निभाते रह कर भी उनकेपीछे छिपे भावार्थ को , कारणों को , उदेश्यों को रहस्यों को जान और समझ
नही पाते जब कि वे हमारी रोजमर्रा ज़िन्दगी से जुड़ी होतीं है | तो फ़िर भिन्न संस्कृति एवं परम्पराओं के पराये देश से आया , कुछ समय से इन सब केसंपर्क में रहा व्यक्ति इनका विशेषज्ञ कैसे हो सकता है ?

जब कम्युनिस्ट कहतें है ' धर्म समाज कि अफीम है ' तो समझ में आता है ,क्यों कि धर्म कि आड़ में समाज के दबे -कुचले ,सामाजिक रूप से पिछडे लोगों पर बहुत अत्याचार किया गया है उनके साथ अनाचार किया गया था | परन्तु इसमें धर्म का क्या दोष ? यह तो सामंतवादी विचार के गर्भ से निकली एक सोच मात्र थी और अभी भी है, उन्होंने धर्म को हथियार बना लिया|खैर इस सिलसिले को आगे बढाते हुए कोई मुझे बताएगा की श्री विश्वमय पति द्वारा उल्लिखित ये " हिन्दू " क्या या कौन हैं ;ये चर-अचर ; जीव- निर्जीव क्या हैं , यह शब्द बहुत दिनों से विभिन्न सन्दर्भों में सुनता चला आरहा हूँ |
" वैसे स्वयं कम्युनिस्टों ने भी 'कम्युनिज्म ' को भी एक पंथ : संप्रदाय का ही रूप दे दिया था और वे पूरे विश्व को ही लाल कर देना चाहते थे : यह तो गनीमत रहा कि उनके गढों का शीराज़ा ही बिखर गया "

यहाँ तक तो ठीक है ,परन्तु जब वे द्वैताद्वैत कि विवेचना कर के उसका रहस्य हमें समझाने का प्रयत्न करें तो भाई मेरी समझ में तो नही आता |आप की समझ में आता हो ,तो मेरी समझदारी बढ़ाने की अनुकम्पा अवश्य कीजिएगा |

वैसे श्री विश्वमय पति जी द्वारा उल्लिखित ये ' हिंदू ' हैं कौन ? ये चर हैं या अच हैं , निर्जीव हैं या जीवधारी हैं , ये कहाँ पाए जाते हैं , इनके ''गुण-धर्म '' क्या हैं ,ये कहाँ से आए ? मैं बहुत से लोगों के मुंह से ये '' हिंदू '' शब्द सुनता चला आरहा हूँ ,मुझे इनसे मिलने इनके बारे में जानने की बहुत उत्कंठा-उत्सुकता है | मेरा यह अनुरोध विश्वमय पति जी जैसे मुर्ख्धान्य विद्वानों तथा विश्वमय पति जी से तो विशेष रूप से है |

मैंने लोक तंत्र के पहरुओं राजनीतिज्ञों को हिन्दू -हिन्दू और मुस्लमान - मुसलमान कहते हुए एक प्रकार का एक खेल खेलते हुए देखा है उस समय वे कबड्डी -कबड्डी कि तरह आपस में एक दूसरे को याद दिलाते रहते हैं ''आओ जनता को बांटे- और सत्ता की मालाए चाटें " शायद इन्होने इस खेल का नाम यही रखा है | और हाँ इसमें भी कुछ पपलू बनाने पडतें है उन्हों ने भी बना रखें हैं , जैसे सिख पिछडा - वर्ग जैनी ,इसमे शमिल होने केलिए ''जातियाँ छटपटाती रहती है जैसे राजस्थान के गुज्जर जो गुर्ज़रों से असतित्व में आए |
मैंने पाया कि जो भी इसके [ हिन्दू ]नामक के संपर्क में आता है , इसको गाली दे कर एवं इसे अगर " लतिया - जुतिया " ना पाया तो तो मौका पाकर " चपतिया " तो जरूरसे जरूर देता है और खूब खुश होलेता है || हाँ ख़ास बात यह की ऐसा केवल हिन्दू नामक प्रजाति के ही साथ हो रहा है , अन्य प्रजातियों से इनकी .........है |
हाँ यदि श्री विश्वमय पति जी स्वयं इसे समझा सकें तो उनकी महान कृपा होगी !!! क्यों कि उन्ही द्वारा मुझे इस पजाति के कुछ गुणों के बारे में ज्ञान हुआ है |
श्री विश्वमय पति जी को साधुवाद उनका इस सिलसिले में आभारी रहूँगा कि उनके
द्वारा मेरा ज्ञान वर्धन हुआ कि यह तथा कथित हिन्दू चौर्य कर्म भी जानतेहैं ,और छोटी-मोटी चीजें ना चुरा कर दूसरों के भगवान ; देवी देवता चुरातेहैं ,अखिरकार उन्हों ने आदिवासियों के देवी देवता और भगवान जो चुरा लिए
हैं |
मैं आज तक यह नही समझ पाया हूँ कि अखिर ऐसा क्यूँ कर है कि हर आधुनिक
मुर्खधन्य विद्वान यही सिद्ध करने में लगा हुआ है कि भारत वर्षे नामक इसदेशके बहु संख्यक निवासी इस देश केमूल निवासी नही हैं ;परन्तु ऐसा कहने वाला विद्वान यह भी बता कर नही देता कि ' वे ' मूलतः कहाँ के निवासी थे , यहाँ
बाहर से आये तो कहाँ से आये और जहाँ से आये तो क्या वहाँ पर उनके पुरातात्विक अवशेष उपलब्ध हैं यदि नही तो क्यों नही ?और यदि पूरे विश्व में इनके उत्पति एवं अस्तित्व के प्रमाण कहीं नही मिलते ,तो क्या यह 'आसमान से ' टपके " हैं ?!?

---------लोगों को याद होगा कि कुछ वर्षों पहले किसी विदेशी लेखक की एक पुस्तक का हिन्दी अनुवाद शायद ,'क्या देवता पृथ्वी पर आए थे 'शीर्षक के साथ आया था कहीं यह तथा-कथित हिंदू उन्ही देवताओं कि संतान तो नही थे , क्योंकि तथा कथित हिन्दुओं की भाषा हिन्दी -हिन्दुस्तानी में एक कहावत बहुत मशहूर है '................ख़ुद तो चले गए औलाद छोड़ गए ' अथवा '. 'ख़ुद तो मर गए औलाद छोड़ गए ' पीछे हटते -हटते इन हिन्दुओं कि उत्पति देवताओं के ही समरूप " आर्य "नामक प्रजाति से हुयी लगती है ;क्यों कि मेरे द्वारा देखे -सुने और मुझे समझाये गए तथाकथित हिंदुत्व का जन्म वैदिक परम्परा से हुआ है या था ,ऐसा मुझे बताया गया है | वैदिक परम्परा के ध्वजा वाहक आर्य प्रजाति को माना क्या ,स्वीकार किया जाता है | आर्य का एक भावार्थ 'श्रेष्ठ ' भी कहा जाता है , ऐसा होना -कहना तार्किक रूप से सही भी होगा ,क्यों कि अज्ञात गहन अन्तरिक्ष से आए आगंतुक देवताओं के, अपने से रूप-रंग में :: ज्ञान आदि में श्रेष्ठ पाए गए उन प्रतिनिधियों को पृथ्वी के मूल निवासियों अपनी भाषा में श्रेष्ठ यानी कि आर्य पुकारा "आर्य " नाम दिया , और अगर एक प्रतिशत भी ऐसा है तो स्पष्ट है कि "आर्य " शब्द देव-वाणी या देव भाषा का शब्द तो नही ही हो सकता | उसके बाद तो लोग [स्थानिक ,पृथ्वी वासी ] आते और तथाकथित हिन्दू और हिदुत्व का कारवां चल पडा चल पडा और आज भी चाहे अपने बिगडे रूप में ही सही बेशर्मी के साथ चला ही जारहा है : चला ही जारहा है |
इन बातों के बाद भी श्री विश्वमय पति जी प्रोफेसर साहब जैसे महान काल दृष्टा [ [ पुराने काल के : सतः युग अगर ऐसा कोई युग था भी : के मंत्र -दृष्टा ऋषियों के के सामान ] ] सभी विद्वानों से मेरा प्रश्न यथावत यक्ष -प्रश्न के रूप में उत्तर प्राप्ति की आशा-दुर्षा केरूप में जीवित है ,जीवित रहेगा ||
इसी बहाने के निशाने अभी और भी हो सकते हैं परन्तु पहले पहला निशाना
चिट्ठा::अन्योनास्ति
कालचक्र कीझरोखा सेचौपाल के

2 टिप्पणियाँ:

'' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: 17 मई 2009 को 8:55 pm बजे  
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:)) ;)) ;;) :D ;) :p :(( :) :( :X =(( :-o :-/ :-* :| 8-} :)] ~x( :-t b-( :-L x( =))

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टीपियाने ने पहले पढ़ने के अनुरोध के साथ:
''गंभीर लेखन पर अच्छा,सारगर्भित है ,कहने भर सेकाम नही चलेगा;पक्ष-विपक्ष की अथवा किसी अन्य संभावना की चर्चा हेतु प्रस्तुति में ही हमारे लेखन की सार्थकता है "
हाँ विशुद्ध मनोरनजक लेखन की बात अलग है ; गंभीर लेखन भी मनोरनजक {जैसे 'व्यंग'} हो सकता है '|
वैसे ''पानाला गिराएँ जैसे चाहे जहाँ, खटोला बिछाएँ
कहाँ यह आप की मर्ज़ी ,आख़िरी खुदा तो आप ही हो ''

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