शनिवार, जुलाई 04, 2009

" स्वाइन - फ्लू और समलैंगिकता [पुरूष] के बहाने से "

" स्वाइन - फ्लू और समलैंगिकता [पुरूष] के बहाने से "


किसी अखबार में कोर्ट - रूलिंग के बारे में पढ़ा था उसकी भाषा कुछ ऐसी थी जैसे कोर्ट का होमोसेक्स्सुअल्टी या समलैंगिकता के पक्ष में निर्णय देना तथा शासन द्वारा सम्बंधित सजा की धारा समाप्त करना नैसर्गिक एवं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के आधार पर किया गया महान कार्य है | अगर समाचार-पत्र द्वारा उल्लिखित भाषा और निर्णय आदि की भाषा एक ही है ,
"तो फिर हमें सोचना पड़ेगा की नैसर्गिक एवं प्राकृतिक का वास्तविक अर्थ क्या हैं ? क्या वो जो कुछ बीमार सोच वाली मानसिकता के लोग परिभाषित कर रहे हैं ,या वो जो इस ' प्रकृति ' द्वारा हमें ' नैसर्गिक ' रूप से दिया या प्रदत्त किया गया है ?"
कहीं अति आधुनिक एवं तथा कथित प्रगति शील कहलाने की अंधी दौड़ में हम अपने पैरों पर कुल्हाडी तो नहीं मारे ले रहें हैं ,जब की अभी तक प्रकृति के साथ की गयी अपनी मूर्खताओं की अलामाते मानव - समाज भुगत रहा है ,फिर भी उसकी आंखे नहीं खुल रहीं हैं |||


ज्ञात सृष्टि में केवल मानव प्रजाति ही एक ऐसी प्रजाति है, जो बारहों मास अपनी इच्छानुसार यौन-क्रिया में सक्षम है जब की अन्य सभी का ऋतु-काल होता है और प्रकृति इस के द्वारा उनकी पजाति का वंशवर्धन व अग्रवर्धन कराती है ,यौन क्रीडा में आनन्द अन्य जीवों को भी आता ही होगा | परन्तु यह मानव प्रजाति ही है जो केवल और केवल मात्र अपने आनन्द के लिए ही रति-क्रीडा करती है ,और उस आनंद को बढाने हेतु नित नए एवं कृत्रिम तरीकों का भी अविष्कार करती रहती है ; यह '' होमोसेक्सुएलिटी '' भी उसी क्रम में आती है | यहाँ तक उसका स्वर्ग और जन्नत भी सेक्स रहित नहीं है वहां भी हूरें या अप्सराएँ है |

ब्रेकिंग न्यूज



किसी समाचार-पत्र में अभी हाल में यह समाचार पढ़ा उसमें उल्लेख था कि
''
डी यु '' , इसका पूर्ण रूप तो आप में से जिसके मतलब की यह ख़बर हो वह ख़ुद ढूंढे ; हाँ ख़बर में प्रोफेसर शब्द आने के कारण मैं ''यु '' का मतलब युनवर्सिटी मान रहा हूँ | हाँ तो '' युनवर्सिटी '' के एक प्रोफेसर [ डाक्टरेट है ] ने अपने किसी तथा- कथित बयान में कोर्ट तथा विधायिका द्वारा इस संदर्भित विषय के पक्ष जो भी निर्णय लिए है उस पर प्रसन्नता प्रकट की है , अरे भाई चौंकिए मत प्रोफेसर साहब अपने लिए नही अपने होनहार कुल -भूषण '' सपूत '' , भाई जब पूर्वज कह ही गए हैं '' लीक छोड़ चले तीन ,'शायर सिंह सपूत ' तो प्रकृति द्वारा निर्धारित लीक छोड़ने के कारण ''सपूत '' ही तो हुए ; के लिए , एक सुंदर - सुशील - होंनहार बहू , '''सपू ''' के लिए एक अर्धांगिनी ??? अरे नही भाई आप गलत समझ रहे हैं ,सही शब्द यहाँ पर ''' अर्धंगना ''' होगा , भाई मैं यहाँ भ्रमित हूँ कि सही शब्द क्या होगा , अगर आप की समझ में आजाये तो मुझे भी बतावें ||
है कोई योग्य स्त्रै लड़का की निगाह में ???

पूर्ण विवरण गत दिनों के किसी हिन्दी समाचार में ढूंढें यह सूचना वहीं से साभार उठाई गई है |


वैसे जान लें कि भारतीय समाज में यह ' विशिष्टता '' पहले से थी ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में कुछ ग्रह स्थिति और योग होने पर पुरुष समलैंगिकता का फलित कहा गया है , और जहाँ तक याद आ रहा है अबदुर्र रहीम 'खानखाना' साहेब ने भी अपनी ज्योतिष्य की छोटी सी पुस्तक '' खेतु कौतुकम् " में भी एक दो दोहे इस संभावना पर '' हिन्दी फारसी संस्कृत मिक्स '' भाषा में कहे हैं ||
श्री काशिफ़ आरिफ़/Kashif आरिफ ने भी हिन्दी ब्लोगिंग की देन पर ' कुरान शरीफ का हवाला दिया है ' ||



वैसे पुरुष -समाज के लिए एक जानकारी और चेतावनी :--
ज्यादा वैज्ञानिक विवरण में जाते हुए संक्षेप में बता रहा हूँ 'पुरानी लोकोक्ति कि पोस्ट -कार्ड को तार समझाना की समझदारी ही से पढें :-->


''पुरषों में ''पुंसत्व '' का निर्धारण करने वाले ''जेनोमिक गुण सूत्रों '' कि संख्या खतरनाक ढंग से खतरनाक स्तर तक कम हो चुकी हैं और यह प्रक्रिया आगे भी जारी रहने की पूर्ण संभावनाएं पाई जा रहीं हैं ; जब कि स्त्रियों में ऐसा कोंई विशेष परिवर्तन नहीं सामने आया है | अतः पुरुष समाज सवधान रहें या नही अगले एक हजार से पॉँच-छः हजार साल बाद पुरुष के स्थान पर केवल " नाना पाटेकर के डाएलोग ' एक मच्छर आदमी को [पुरुषों के सन्दर्भ में ] .......वाली बिरादरी ही बचेगी , और फिर क्योंकि पुरुष संतान होगी नहीं अतः कुछ दिनों में पुरुष नामक प्रजाति का '' कुरु कुरु स्वाहाः '' हो जायेग और यह धरती ,शौकत थानवी के उपन्यास वाला परन्तु वास्तविक "ज़नानिस्तान " बन के रह जायेगी परन्तु वहाँ पुरुष तो थे पर व्यवस्थाएं उलट थीं ||
हाँ यह भी हो सकता है की जब भी उत्पन हो एक ही पुरूष संतान हो जिसे समाज की मुखिया या रानी अपने ' ' इस्तेमाल 'के लिए आलराईटस रिज़र्व' स्टाइल '' में रख ले ? चीटियों मधु -मक्खियों के तरीके से ? तब उस पुरूष के लिए युद्घ नही महायुद्ध हुआ करेंगे ,जिसपर ' गाथाएं ' लिखी जाया करेंगी ?


अभी तक तो औरों का कहा दोहरा रहा था अब मेरी बात, वैसे यह भी मेरा नहीं है शास्त्रों का ही कहा है परन्तु ईश्वरवादी हूँ अतः इसे ही मेरा ही विचार समझें '' शास्त्रों में कहा गया है कि जब - जब पृथ्वी का भार बढ़ जाता वह पुकार लगाती है '' तो भगवान पहले पृथ्वी का भार किसी प्रकार से जैसे हैजा [कालरा ] प्लेग , ताउन , रोज - रोज छोटे-राजाओं [ एक गाँव के चक्रवर्ती सम्राटों ] के मध्य मूंछ ऊँची नीची , कुत्ते की पूंछ की छोटी-बड़ी जैसी बातों पर युद्ध आदि से जिसमें गाँव के गाँव ,नगर के नगर आबादी विहीन हो जाते थे ,द्वारा इस का प्रबंधन कर दिया करते थे || हाँ अगर इससे भी काम न चले तो महाभारत करा के भार कम कर दिया करते थे ; अरे भाई आबादी कम होगी तो भार भी तो कम होगा ; प्रति व्यक्ति आप औसत ७६ किलो मान ही सकते हैं | वैस पहले देव दानव के युद्ध समान्य सी बात थी , जब तक ''अमृत '' का अविष्कार हुआ नहीं था | दानवों की ओर से शुक्राचार्य मृत-संजीवनी विद्या के साथ थे अतः जब देवता हार कर थक-थका जाते या ब्रेक टाइम आ जाता तो पृथ्वी वासियों को अपनी ओर से '' वरदान नामक गिफ्ट पॅकेज '' का करार कर भेज देते थे आदि-आदि;
" परन्तु अब लगता है कि यह सब कारगर नहीं रहा तो उपर वाला डैमेज कंट्रोल में स्वाइन-फ्लू , होमोसेक्स्सुअलिटी के वायरस भेज रहा है "


कुरु कुरु स्वाहा:





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गुरुवार, मई 14, 2009

"... ...धर्मनिरपेक्षता के बहने से-1 "

" बहाने अभी और भी है "

मैं जब अन्तर -झाल पर विचरण कर रहा था किन्ही जनाब अनिल राजिम वाले का एक लेख किन्ही सुमन ने " हिंदुस्तान का दर्द ''नामक ब्लॉग पर पोस्ट किया है बाद में पता चला वह उसका सन्लगनक-विस्तार है , पहले तो मैं उसी ब्लॉग पर टिप्पणी देने जा रहा था परन्तु जब टिप्पणी पोस्ट कराने लगा तो देखा की वोह टिप्पणी से ज्यादा एक पोस्ट होचुकी थी ; बहुत दिनों से कोई पोस्ट नही लिखी जा पारही थी ,
"सोचा क्यों न इसे ही अपने किसी ब्लॉग पर ही चेप दूँ और टिप्पणी देने के बजाये ' टिपिया ' ही डालूं फ़िर सोचमें पड़ गया कि विषय का मौजूं ब्लॉग कौन सा हो सकता है ,और अचानक ही मुझे " .......के बहाने से " यानि कि " चिटठा-अन्योनास्ति " कि याद आगई : बस फ़िर ..........." >>>>>>
लीजिये संदर्भित पोस्ट का आनंद लेने के लिए यदि '' सारी पेज नॉट फाउन्ड ''आता ही तो लोकसंघर्ष पर क्लिक कर के पेज खुलने के बाद दायीं और सूची में "यह क्या है सीरिज ढूंढें और उस पर क्लिक कर वह पेज खोलें और फ़िर दोनों का तुलनामक आनंद आप भी आनंद लीजिये . फ़िर आपसे मेरी बात हो तो ज्यादा ही सही ढंग से आप मेरी बात समझ पाएंगे ............ >>>>>>>>>>>>>>
पोस्ट पढ़ी ? क्या लगा ? मुझे तो शब्दों के हेर-फेर से एक ही लेख दोनों बार लिखी लगी ,मैं अनिल राजिमवाला या सुमन जी को नही जानता ,वैसे हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा लोकतंत्र देता है ,यह उसका संविधानिक अधिकार है । पर क्या विरोध के लिए विरोध किया जाना उचित होता है ? भाषा शैली कम्युनिष्टों वाली होने के साथ साथ मुसलिम समाज के रहनुमा 'ठेकेदारकी सी है । क्या समझे ? इरादे तो बड़े

नेक?/खतरनाक दिख रहे हैं । ऐसे ही लोग नही चाहते की विभिन्न विचार धाराएँ पास -पास आवें ! नादिरशाह , महमूद गजनवी की बात करें तो ये सभी ' भारत वर्ष ' के लिए सदैव से विदेशी ही रहे और रहेंगें भी ।

आईये अब ' ' अफगानियों ' ' की बात करें अर्थात मुहमद गोरी और बाबर की इसके लिए हम लगभग पॉँच हजार वर्ष पूर्वके इतिहास के पृष्ठों को पलटना पडेगा अर्थात '' भीष्म पितामह " का महा-भारत काल । धृष्टराष्ट की पत्नी गांधारी एवं कौरवों पांडवों के मध्य महा-भारत युद्ध का सूत्रधार गांधारी का भ्राता शकुनी क्रमशः गाधार [ कंधार ] की राजकुमारी तथा राजकुमार थे उस काल में भारत का विदेश व्यापर का स्थलीय मार्ग अफगानिस्तान से ही हो कर था कहने का आशय या है की भारत व अफगानिस्तान एक प्रकार से सह-राष्ट्र ही थे । पाकिस्तान बनने से पूर्व तक और कुछ समय बाद तक भी अफगानी जब व्यापर करने निकलता था मुहं उठाये भारत याने हिंद और वो भी सीधे कलकत्ता ही जा रुकता था उन दिनों यह इतनी सामान्य सी बात थी की गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने" काबुली वाला " नामक उपन्यास ही लिखा डाला वैसे बाबर मूलतः चीनी तुर्किस्तान का निवासी था । बाबर ने 21 वर्ष की आयु में अफगानिस्तान के काबुल पर कब्जा किया ।

भारत की राजनीति का केन्द्र महा भारत काल से ही दिल्ली के आसपास हो चुकी थी जब से पुरुरवा के वंशजों [ कुरु या पुरु वंशी कौरव-पांडव ] ने अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर { वर्त्तमान झूसी इलाहाबाद :: प्रयाग :: उत्तर प्रदेश U.P.} से हटा कर राजा हस्ती राज द्वारा मेरठ के पास हस्तिनापुर में स्थापित की और बाद में पांडवों [ कृष्ण-अर्जुन ] द्वारा '' अग्निदेव के अपच का उपचार करने हेतु खांडव वन को जलाने को अनुमति '' देने एवं अग्नि से मय दानव के परिवार की रक्षा अग्नि से करने के बाद खांडव वन की धरती पर मय दानव द्वारा पांडवों के लिए '' इन्द्रप्रस्थ '' नामक नगर बसाया गया यह दिल्ली के दक्षिण में था आज भी इंदरपत नामक गाँव उसकी याद दिलाता है कहने का आशय यह है कि भारतीय कि सत्ता का केन्द्र बिन्दु महा-भारत काल में ही आर्यावर्त के भारतीय खंड के केन्द्र कौशल ,कोशल ,प्रतिष्ठान-पुर,पाटलिपुत्र आदि से खिसक कर उत्तर-पश्चिम के मध्य भाग के मध्य क्षेत्र हस्तिनापुर , इन्द्रप्रस्थ , मथुरा और अन्तोगत्वा दिल्ली में स्थानांतरित हो चुका था पृथ्वी राज चौहान के नाना अनंगपाल जिसका राज्य पृथ्वी राज ने उतराधिकार में पाया के काल को दिल्ली भारतीय राजनीतिक शक्ति का स्थायी केन्द्र हो चुका था और यह मन जाने लगा कि दिल्ली जिसकी भारत का शासक वही होने हने को तो यह मात्र एक सामाजिक मान्यता भर थी परन्तु जनमानस मेन बड़ी गहरे बैठी थी , और सुदूर पश्चिम तक फैली हुई थी अतः जो भी पश्चिम से भारत विजय हेतु निकलता वह दिल्ली पर अवश्य ही अधिकार करना चाहता था मुहमद गोरी से आरंभ हुआ यह क्रम बाबर तक जारी रहा । 1523-24 में बाबर के ही चचेरे भाईयों ने उसे धोखे से अफगानिस्तान से खदेड़ दिया थका हारा बाबर अपने वफ़ादार लगभग ग्यारह सवा ग्यारह हजार सैनिकों सहित पंजाब में घुसा एक ठौर ढूंढ़ते बाबर को खुदाई पैगाम की तरह इसी समय दो संदेशे मिले एक तो दिल्ली के< सुलतान इब्राहीम लोदी के चाचा आलम खान का जिसने इस लालच में बाबर से मदद मांगी थी की वह इब्राहीम लोदी को हराने के बाद काबुल लौट जाएगा और दिल्ली की गद्दी उसकी [ इब्राहीम लोदी के चाचा आलम खां की ]हो जायेगी दूसरा राणा सांगा का जिसने अपने शत्रुओं से बदला लेने के लिए बाबर की तोपों की लालच में मदद चाही थी , मेरा अनुमान है की इन दोनों को बाबर और उसके चचेरे भाईयों के बीच के झगडें के बारे में कुछ मालूम नही था उन्हें आशा थी कि बाबर लूट-पाट कर के काबुल लौट जाएगा परन्तु सब उलट-पलट हो गया< और बाबर के पास यही बसने कि मजबूरी के सिवा कोई चारा था भी तो नाही< । शेष अगले अंक में

...>>>> धर्मनिरपेक्षता के बहने -2

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शनिवार, दिसंबर 27, 2008

" फ़िर कंधमॉल के बहाने : अबकी निशाने से "

कंधमाल के बाद और कंधमॉल से आगे अभी और भी है
बहुत दिनों तक प्रतीक्षा की परन्तु मेरे यक्ष- प्रश्न का उत्तर अभी तक नही मिला है |और सम्पूर्ण विश्व के "विश्वमय पति " जी की प्रकृति एवं :विचार-धारा के अन्य विद्वानों से ही किसी विद्वान् का उत्तर नही प्राप्त हुआ है | मगर मै " इसी ,उसी, यानी किसी किसी ' .....के बहाने से'फ़िर हाजिर हूँ |"

" मेरा सुधि पाठकों से विनम्र निवेदन है कि मेरी शंकाओं को दूर -दूर तक ' संक्रामक [छूत] ' के रोग की तरहफैला दें ,किसी भी भाषा- भाषी से उसी की भाषा में प्राप्त उत्तर भी मुझे स्वीकार है ,केवल उत्तर की भाषा को लेख में स्पष्ट करदे [जय हो गूगल बाबा के ट्रांसलेटर की ]|| "
मेरा बहाना अभी भी वही है यानि ......" कंधमाल के बहाने से "; पिछली बार इस लेख में मैं यह पूछना भूल गया था
" यह कहाँ की विधिक नियमावली अथवा संविधान या धर्म- शास्त्र के ग्रन्थ के आधार पर किया न्याय है कि जब किसी सम्प्रदाय का कोई व्यक्ति किसी अन्य धर्म या सम्प्रदाय के देवी -देवता को अपनाएं तो उसे मतान्तर या या धर्मांतरण कहा जाए परन्तु जब ये ' तथाकथित हिन्दू ' ऐसा करे तो वह देवी देवता चुराने का अपराध या पाप कहलाये ?"
जब कंधमाल या उड़ीसा में ईसाई समाज -सम्प्रदाय 'आदिवासियों 'अथवा श्री स्वपन दास गुप्ता के अनुसार अनुसूचित जाति के देवी देवता वास्तव में उनसे छीन कर नया देवी देवता थमा रहे हैं ,' श्री विश्व मय जी कि दृष्टि में इसे क्या कहा जाना चाहिए ?
खैर जैसा मैं उपरोक्त लेख में कह चुका हूँ कि संतुष्टी -कारक उत्तर न मिलने तक मेरा यह प्रश्न, यक्ष-प्रश्न बना रहेगा || मेरे लिए यह जानना बहुत महत्त्वपूर्ण है , क्योंकि मेरे स्वर्गीय [ मेरी दृष्टि में ] पूज्य पिता श्री कहा करते थे कि हम हिंदू- सिक्ख हैं ; अब इसी समय पूछने न लग जाईयेगा कि अगर हिंदू हैं तो सिक्ख कैसे !!!!!?????? और सिक्ख हैं तो हिंदू हो ही नही सकते || आप मेरे प्रश्न का उत्तर दें आप को इस पश्न का उत्तर अपने आप मिल जायेगा यदि न मिला तब मैं दूंगा |अगर श्री विश्वमय पति जी स्वयम उत्तर दे मेरी जिज्ञासा को शांत कर सकें तो अति - उत्तम , कहें तो सोने में सुहागा जैसा होगा ; यह जिज्ञासा भी उन्हीके लेख की देन है, '' तुम्ही ने दर्द दिया है , तुम्ही दावा देना '' |
सोचरहा हूँ कि अब निशाना लगा ही डालूं वरना यदि कहीं शिकार छटक कर भाग गया या किसी और का निशाना लग गया तो आप का ये बन्दा टापता और हाथ मलता ही रह जाए |

कंधमॉल- कांड के संदर्भ में आप को याद होगा वाशिंगटन ,लन्दन 'पेरिस यानि विश्व कि चहुँ दिशाओं से भारत को आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था ,सबसे ज्यादा चिंचिनाये " रोम के पोप " थे | स्थानीय परिस्थितियों - वास्तविकताओं को बिना जाने -समझे , वे सभी भारत सरकार से जोरदार विरोध प्रगट करते रहे | अब मैं अपना निशाना बता रहा हूँ ,
" दूसरी ओर फ्रांस में एक कानून के कारण समस्या झेल रहे खालसा -सिक्खों के साथ भारत सरकार कितनी जोरदार ढंग से खड़ी हुई थी या है , यह , हम आज तक नही जान पाए हैं "!--!--
आगे बढ़ने से पूर्व फ्रांस के सिक्खों कि समस्या क्या है इस के बारे में भी जान लेना उचित होगा ......>>
.....>" फ्रांस में एक कानून है कि आप सार्वजनिक स्थलों पर कोई भी ऐसा चिन्ह या प्रतीक धारण एवं प्रर्दशित नही कर सकते जो ''किसी धर्म का प्रतीक हों या जो आप कि धार्मिक आस्था को सार्वजनिक रूप से प्रकट करतें हों [[ ईसाई धार्मिक चिह्नों के बारे में मुझे कोई सूचना नही है ]], और यही विधान ' सिक्खों के लिए समस्या बन गया हैं , वे पगड़ी या साफा नही बाँध सकते; क्यों कि इसे वहां पर धार्मिक चिन्ह माना गया है ''


'कंधमाल के बहाने ' लेख से पहले इस ब्लॉग की रूप रेखा कुछ और थी ,परन्तु जब तक यह ब्लॉग मूर्त हो पाता कंधमॉल की घटना होचुकी थी '' फ्रांस के सिक्खों '' की उपरोक्त समस्या से जुड़ी खबरों पर दृष्टि पड़ गयी और कंधमाल के बारे में पॉप का बयान भी आचुका था , बस इसी के साथ इस ब्लॉग ' की '' रूप रेखा , सूत्र वाक्य और मूलमंत्र '' आदि विचारों में कौंध गया जिसका परिणाम आप के समक्ष '' ''चिटठा -अन्योनास्ति ब्लॉग और उस पर पहली पोस्ट '' कंधमाल के बहाने से '' के रूप में दिख रहा है { देखें }|
  • शुरू शुरू में रोमन हिन्दी लिखने का अभ्यास न होने से बड़ी अनगढ़ सी पोस्ट प्रकाशित हुई | फ़िर मनपसंद टेम्पलेट्स ढूंढ़ने के चक्कर में गड़बड़ होती रही और उस लेख की दूसरी पोस्ट जिसमें ' सिक्खों से जुडी समस्या उठाई जानी थी लेट होने लगी | काफी देर हो जाने के कारण और समाचार पत्रों में उक्त समस्या से जुड़ी कोई नई ख़बर न होने के कारण मैं निर्णय नही ले पा रहा था कि उसे उठाऊं या नही कि अचानक हाल में उक्त ख़बर पुनः दिख गयी ; तुंरत पहली पोस्ट को सुधार कर पुनः प्रकाशित कर यह पोस्ट प्रकाशन हेत लिखने लगा |
हाँ तो मैं बात कर रहा था '' फ्रांस '' देश की
'' यह वही फ्रांस देश है जहाँ एक ऐसा कानून लागू है कि कोई अपने धार्मिक-प्रतीक [चिन्ह ] सार्वजनिक रूप से पहन कर उन्हें प्रर्दशित नही कर सकता | इसी '' फ्रांस '' देश ने भी भारत के प्रधान मंत्री माननीय मन मोहन सिंह जी की फ्रांस यात्रा के समय '' कंधमाल के सन्दर्भ '' में अपनी बड़ी जोरदार आपत्ति दर्ज कराई थी ;परन्तु एक सिक्ख प्रधान मंत्री से उसके देश[ भारत ] में वहीं के नागरिकों [ भारत ] के आपसी विवाद के बारे में अपना विरोध दर्ज कराना तो फ्रांस के राष्ट्राध्यक्ष को याद रहा क्यों कि उनमें से विवाद का एक पक्ष सरकोजी का '' सधर्मी '' जो था परन्तु उन्ही मेहमान प्रधान-मंत्री के 'सधर्मियों ' के साथ एक साधारण सी बात के लिए राष्ट्रपति सरकोजी के अपने देश [फ्रांस ]में हो रहा अन्याय फ्रांस के राष्ट्रपति 'सरकोजी ' को याद नही रहा |"
आगे बढ़ने से पहले यदि हम '' सिक्ख पंथ एवं उसके धार्मिक प्रतीकों '' के बारे में कुछ जान लें तो उचित होगा |
अगर मैं यह कहूँ कि '' सिक्ख '' पंथ इस सृष्टि का प्राचीनतम पंथ है तो आप मेरे कथन पर आश्चर्य भी प्रकट करेंगे और मुझे तथ्यों से अंजान मुर्ख समझ कर हँसेंगे भी अवश्य ही । मैं अपने कथन के समर्थन में विस्तार में नही जा रहा हूँ इस विषय पर अलग से अपने किसी अन्य ब्लॉग पर पोस्ट देनें का प्रयत्न करूँगा ।
"{,पहले पूरा मैटर इसी आलेख में देरहा था देखा पोस्ट विषय से भटक कर लम्बी हो रही है एवं विवरण इस ब्लॉग के सूत्र - वाक्य के लिए मौजूं भी नही है ,} ''
प्राचीनतम ''गुरु शिष्य'' परम्परा के क्रम में आज का ''सिक्ख '' पंथ अस्तित्व में आया और गुरु-शिष्य संबंधों को शाश्वत कर गया
|

आज के '' सिक्ख पंथ '' के उद्भव एवं आरंभ बारे में एक भ्रान्ति सामान्यतः लोगों यहाँ तक कि स्वयं सिखों में विशेष रूप से है कि सिक्ख पंथ का प्रारम्भ या स्थापना '' दशम गुरुमहाराज ' गुरु गोविन्द सिंह देव ' जी द्वारा " किया गया है ; यह मान्यता एवं धारण ग़लत है ।

  • '' सिक्ख पंथ'' का उद्भव प्रथम गुरु - महाराज '' गुरु नानक देव जी '' [१४६९-१५३९] के जीवन काल में ही होगया था जो अगले आठ गुरुओं के जीवन काल के साथ परवान चढ़ता रहा और नवे बादशाह गुरु तेग बहादुर जी महाराज जी के जीवन काल में इतनी ऊँचाई तक पहुँच गया कि समाज के सताए हुए लोग उनके द्वारे '''त्राहि-माम् ;; त्राहि-माम् ''' करते हुए पहुँचने लगे थे, और उन्हों ने भी शरणागतों को निराश नही किया ; ''' उनकी रक्षा हेतु अपना बलिदान दे ; अपना शीश दे समाज में त्याग और धर्म का मर्म स्थापित किया '''|

दशम गुरु महाराज गोविन्द सिंह जी द्वारा उसी सिक्ख -पंथ को परमार्जित कर उसी सिक्ख -पंथ के अंतर्गत खालसा-समाज का निर्माण कर सिक्खी को पूर्ण पंथ का दर्जा एवं सम्मान दिला दिया गयाउन्होंने किसी सामाजिक- मान्यता एवं परम्परा एवं समाज के पंथ बनने की प्रमुख शर्तों की पूर्ति करते हुए , अभी तक नानक शाही सिक्ख कहलाने वाले समाज को ''विधान : निशान :कमान : प्रधान : स्थान ''पाँचों लाक्षणिक - प्रमाण { अंग }दे पूर्ण पंथ बना दिया

  • प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा में बताये गयी हर उस बात को मानना पालन करना जिनका उपदेश ' गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोविन्द सिंह जी ' तक दसों गुरु दे गए हैं का अनुपालन करना प्रत्येक सिक्ख का कर्त्तव्य है । पूरे समाज को तीन अंगों में बांटा गया

{1} सिक्ख - संगत :- -उन सभी को कहा गया जो गुरु के सामान्य उपदेशों का पालन करते हुए '' ग्रन्थ साहेब '' को ग्यारहवां एवं अन्तिम गुरु मानने के अतिरिक्त इनके लिए अन्य कोई हार्ड एंड फास्ट नियम नही है जिस कारण से यदि वे ' सनातन-धर्मी नही है , तब भी सिक्ख समाज या संगत में भागीदार हो सकते हैं ,यह उन्हें अपने व्यक्तिगत धर्म के अनुपालन से नही रोकता ।

{2} "खालसा समाज :- को ही सिक्ख समाज : सिक्ख संगत का व्यवस्थापक अधिकार प्राप्त हैं '' इसी खालसा - समाज की स्थापना दसवें गुरु ,गुरु गोविन्द सिंह जी ने की थी । " इस खालसा संगत या समाज के लिए कुछ नियम निर्धारित हैं उनका पालन किया जाना अनिवार्यता है ।

{3} निहंग खालसा :--सवें गुरु महराज ने अपने उस युग की परम्परा के अनुसार पूरे खालसा संगत के एक अंश को 'धर्म -धार्मिक -भक्तों की रक्षा हेतु नियमित सेना का रूप देकर उन्हें ' ''निहंगसिक्ख '' का नाम दिया ; ये सदैव सैनिक गणवेश में रहते हैं । { उपरोक्त तीनो तथा अन्य तथ्यों का उल्लेख मैं अपने अलग ब्लॉग में विस्तार से करूँगा }

  • एक "खालसा "के लिए निर्धारित पञ्च ककार '''केश :कंघ :कड़ा :कच्छ :और :कृपाण '''ही वे प्रतीक - चिन्ह हैं जिन्हें धारण करना हर ''खालसा सिक्ख ''के लिए अनिवार्य होता है एक पूर्ण सिक्ख गुरुद्वारे में गुरु -ग्रन्थ साहिब जी के समक्ष अमृत पान कर पांचो प्रतीक ककार ग्रहण कर खालसा सजता हैकोई भी सिख उपरोक्त पञ्च ककार धारण करने के लिए स्वतन्त्र तो है , परन्तु जब तक वह ग्रन्थ-साहेब को साक्षी मान पञ्च - प्यारों प्रदत अमृत - पान नही करता वह खालसा कहलाने अधिकारी नही हो सकता । यहाँ तक स्वयं खालसा-पंथ के प्रवर्तक श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने भी नियमों एवं परम्परा का पालन किया '' प्रथम पञ्च -प्यारों को अमृत छकाने के बाद उन्होंने उन उनके हाथ से अमृत -पान कर खालसा साज सजाया था
उपरोक्त विवरण प्रस्तुत करने का मेरा एक ही उद्देश्य है , अपने सिख भाईयों भारत सरकार के नुमाएंदों को यह स्पष्ट करना है कि वे फ्रांस सरकार को बतावें कि ये पगड़ी या साफा स्वयं में कोई धार्मिक प्रतीक न हो कर हमारे देश के पारंपरिक पहनावे का एक अंग है , हिस्सा है इसका उपयोग सर एवं ''केशों '' को धूल - मिट्टी से बचाना होता है प्राचीन कल में इसे बंधाते समय इनके मध्य , एक-दूसरे को काटते लोहे के दो छल्लों को पिरो कर इसे ही शिरास्त्रण को रूप दे दिया जाता था । जब तेल - धनी अरबियों को अपनी पारंपरिक परिधान पहनने की स्वतंत्रता है तो भारतीय - सिखों को पगड़ी - साफा क्यों नही ?


समस्याओं के हल होने की प्रतीक्षा में ''अन्योनास्ति ''

सुना है कि नए बारहा -खड़ी में ग से अब गदा नही गधा पढाया जा रहा है लालू भाई ने पिछले चुनावों में गोधरा पढ़ाने की कोशिश की बिहार का राज पाट चला गया ।




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बुधवार, दिसंबर 24, 2008

" कंधमाल के बहाने से "

"कंधमाल के बहाने से "

मैं अभी भी नही जानता कि कंधमाल उडीसा के किस हिस्से में है |बैठे ठाले13 अक्टोबर 2008 दिन सोमवार के दैनिकजागरण समाचार पत्र का सम्पादकीय पृष्ट हाथ लग गया,खोलने परदो लोग दिखे |पहले कोई इतिहास के परोफेसर श्री विश्वमय पति दिखे बड़ा सा बैनर " हिन्दू नही है उडीसा के आदिवासी " लगा था ,पहले तो लगा कि ज्ञान चक्षु खोलक इस ब्रांड नाम का किसी अंजन का प्रचार -प्रसार किया जा रहा है ,कुछ ऐसा था भी और नही भी था ,अंजन की बिक्री ना हो कर अपनी विचार धारा के द्वारा वे भारतवासियों के ज्ञानचक्षु ही खोलना चाहते थे |श्रीविश्वमय जी अपनी विशेष कक्षा लगाए हुए थे जिसकाविचार बिन्दु ही उस बैनर पर लिखा था |दूसरे दिखे अपन के जाने पहचाने श्री स्वपनदासगुप्ता ,उन्हों ने भी कंधमाल का टिकट कटा रखा था |

जहाँ तक मुझे याद आता है जब मैं बच्चा था उस समय हमारे शहर से देश की राजधानी या देश के दिल यानी कि 'दिल्ली ' जाने के लिए ट्रेन के दो रूट हुआ करते थे ; एक वाया सहारनपुर और दूसरा मुरादाबाद हो कर , जहाँ ट्रेन बदलनी पड़ती थीं ; एक ट्रेन नई -दिल्ली या सच कहूं तो न्यू -डेल्ही तो दूसरी पुरानी दिल्ली पहुंचाती थी इस विवरण का उद्देश्य मात्र आप को यह बताना है कि उसी प्रकार भारतीय इतिहास के अध्ययन के दो माध्यम है,पहला माध्यंम भारतीय वांग्मय हमारे पुराण ,प्राचीन कहावतें- किवदंतियां तथा हमारी वे पारंपरिक कथाएं जो दादी नानीयाँ हमें हमारे बचपन में सुनाया करती थीं ; औरइसी के द्वारा ,इन कथाओं में छिपे हमारे इतिहास का अगली पीढी को पता लगता था , वह हमें हस्तांतरित भी हो जाता तथा अगली पीढी को संस्कारित कराने का कार्यभी यही कथाएं हीं करती थी , इनमें अधिकांशतः अलिखित हीं हुआ करतीं थीं,इन्हे भी 'श्रुतियां ' पुकारें तो अनुचित नही होगा |

" वैसे अब नानी दादीयों का युग तो रह नही गया है ,अब इसकी जिम्मेदारी टी वी सीरियल बनाने वालों यथा रामा नन्द सागर और बी आर चोपडा की कंपनियों ने उठा ली है |"

यह तो हुई पुरानीदिल्ली स्टेशन पहुचने वाली ट्रेन की बात |अबबात करतें हैं नई दिल्ली या न्यू डेल्ही स्टेशन पहुँच ने की बात , यह तोप्रतीक मात्र है ,इसबात पर जोर देने के लिए कि भारतीय इतिहास को पढ़ने एवं
जानने की दूसरी राह मैक्समूलर के द्वारा दिया ब्रह्म ज्ञान ;कुछ लोगों कोभारतीय इतिहास का वही अन्तिम सच लगता है || जब हम यहीं पैदा होकर पूरेजीवन भर अपनी रस्मों परम्पराओं को देखते सुनते और निभाते रह कर भी उनकेपीछे छिपे भावार्थ को , कारणों को , उदेश्यों को रहस्यों को जान और समझ
नही पाते जब कि वे हमारी रोजमर्रा ज़िन्दगी से जुड़ी होतीं है | तो फ़िर भिन्न संस्कृति एवं परम्पराओं के पराये देश से आया , कुछ समय से इन सब केसंपर्क में रहा व्यक्ति इनका विशेषज्ञ कैसे हो सकता है ?

जब कम्युनिस्ट कहतें है ' धर्म समाज कि अफीम है ' तो समझ में आता है ,क्यों कि धर्म कि आड़ में समाज के दबे -कुचले ,सामाजिक रूप से पिछडे लोगों पर बहुत अत्याचार किया गया है उनके साथ अनाचार किया गया था | परन्तु इसमें धर्म का क्या दोष ? यह तो सामंतवादी विचार के गर्भ से निकली एक सोच मात्र थी और अभी भी है, उन्होंने धर्म को हथियार बना लिया|खैर इस सिलसिले को आगे बढाते हुए कोई मुझे बताएगा की श्री विश्वमय पति द्वारा उल्लिखित ये " हिन्दू " क्या या कौन हैं ;ये चर-अचर ; जीव- निर्जीव क्या हैं , यह शब्द बहुत दिनों से विभिन्न सन्दर्भों में सुनता चला आरहा हूँ |
" वैसे स्वयं कम्युनिस्टों ने भी 'कम्युनिज्म ' को भी एक पंथ : संप्रदाय का ही रूप दे दिया था और वे पूरे विश्व को ही लाल कर देना चाहते थे : यह तो गनीमत रहा कि उनके गढों का शीराज़ा ही बिखर गया "

यहाँ तक तो ठीक है ,परन्तु जब वे द्वैताद्वैत कि विवेचना कर के उसका रहस्य हमें समझाने का प्रयत्न करें तो भाई मेरी समझ में तो नही आता |आप की समझ में आता हो ,तो मेरी समझदारी बढ़ाने की अनुकम्पा अवश्य कीजिएगा |

वैसे श्री विश्वमय पति जी द्वारा उल्लिखित ये ' हिंदू ' हैं कौन ? ये चर हैं या अच हैं , निर्जीव हैं या जीवधारी हैं , ये कहाँ पाए जाते हैं , इनके ''गुण-धर्म '' क्या हैं ,ये कहाँ से आए ? मैं बहुत से लोगों के मुंह से ये '' हिंदू '' शब्द सुनता चला आरहा हूँ ,मुझे इनसे मिलने इनके बारे में जानने की बहुत उत्कंठा-उत्सुकता है | मेरा यह अनुरोध विश्वमय पति जी जैसे मुर्ख्धान्य विद्वानों तथा विश्वमय पति जी से तो विशेष रूप से है |

मैंने लोक तंत्र के पहरुओं राजनीतिज्ञों को हिन्दू -हिन्दू और मुस्लमान - मुसलमान कहते हुए एक प्रकार का एक खेल खेलते हुए देखा है उस समय वे कबड्डी -कबड्डी कि तरह आपस में एक दूसरे को याद दिलाते रहते हैं ''आओ जनता को बांटे- और सत्ता की मालाए चाटें " शायद इन्होने इस खेल का नाम यही रखा है | और हाँ इसमें भी कुछ पपलू बनाने पडतें है उन्हों ने भी बना रखें हैं , जैसे सिख पिछडा - वर्ग जैनी ,इसमे शमिल होने केलिए ''जातियाँ छटपटाती रहती है जैसे राजस्थान के गुज्जर जो गुर्ज़रों से असतित्व में आए |
मैंने पाया कि जो भी इसके [ हिन्दू ]नामक के संपर्क में आता है , इसको गाली दे कर एवं इसे अगर " लतिया - जुतिया " ना पाया तो तो मौका पाकर " चपतिया " तो जरूरसे जरूर देता है और खूब खुश होलेता है || हाँ ख़ास बात यह की ऐसा केवल हिन्दू नामक प्रजाति के ही साथ हो रहा है , अन्य प्रजातियों से इनकी .........है |
हाँ यदि श्री विश्वमय पति जी स्वयं इसे समझा सकें तो उनकी महान कृपा होगी !!! क्यों कि उन्ही द्वारा मुझे इस पजाति के कुछ गुणों के बारे में ज्ञान हुआ है |
श्री विश्वमय पति जी को साधुवाद उनका इस सिलसिले में आभारी रहूँगा कि उनके
द्वारा मेरा ज्ञान वर्धन हुआ कि यह तथा कथित हिन्दू चौर्य कर्म भी जानतेहैं ,और छोटी-मोटी चीजें ना चुरा कर दूसरों के भगवान ; देवी देवता चुरातेहैं ,अखिरकार उन्हों ने आदिवासियों के देवी देवता और भगवान जो चुरा लिए
हैं |
मैं आज तक यह नही समझ पाया हूँ कि अखिर ऐसा क्यूँ कर है कि हर आधुनिक
मुर्खधन्य विद्वान यही सिद्ध करने में लगा हुआ है कि भारत वर्षे नामक इसदेशके बहु संख्यक निवासी इस देश केमूल निवासी नही हैं ;परन्तु ऐसा कहने वाला विद्वान यह भी बता कर नही देता कि ' वे ' मूलतः कहाँ के निवासी थे , यहाँ
बाहर से आये तो कहाँ से आये और जहाँ से आये तो क्या वहाँ पर उनके पुरातात्विक अवशेष उपलब्ध हैं यदि नही तो क्यों नही ?और यदि पूरे विश्व में इनके उत्पति एवं अस्तित्व के प्रमाण कहीं नही मिलते ,तो क्या यह 'आसमान से ' टपके " हैं ?!?

---------लोगों को याद होगा कि कुछ वर्षों पहले किसी विदेशी लेखक की एक पुस्तक का हिन्दी अनुवाद शायद ,'क्या देवता पृथ्वी पर आए थे 'शीर्षक के साथ आया था कहीं यह तथा-कथित हिंदू उन्ही देवताओं कि संतान तो नही थे , क्योंकि तथा कथित हिन्दुओं की भाषा हिन्दी -हिन्दुस्तानी में एक कहावत बहुत मशहूर है '................ख़ुद तो चले गए औलाद छोड़ गए ' अथवा '. 'ख़ुद तो मर गए औलाद छोड़ गए ' पीछे हटते -हटते इन हिन्दुओं कि उत्पति देवताओं के ही समरूप " आर्य "नामक प्रजाति से हुयी लगती है ;क्यों कि मेरे द्वारा देखे -सुने और मुझे समझाये गए तथाकथित हिंदुत्व का जन्म वैदिक परम्परा से हुआ है या था ,ऐसा मुझे बताया गया है | वैदिक परम्परा के ध्वजा वाहक आर्य प्रजाति को माना क्या ,स्वीकार किया जाता है | आर्य का एक भावार्थ 'श्रेष्ठ ' भी कहा जाता है , ऐसा होना -कहना तार्किक रूप से सही भी होगा ,क्यों कि अज्ञात गहन अन्तरिक्ष से आए आगंतुक देवताओं के, अपने से रूप-रंग में :: ज्ञान आदि में श्रेष्ठ पाए गए उन प्रतिनिधियों को पृथ्वी के मूल निवासियों अपनी भाषा में श्रेष्ठ यानी कि आर्य पुकारा "आर्य " नाम दिया , और अगर एक प्रतिशत भी ऐसा है तो स्पष्ट है कि "आर्य " शब्द देव-वाणी या देव भाषा का शब्द तो नही ही हो सकता | उसके बाद तो लोग [स्थानिक ,पृथ्वी वासी ] आते और तथाकथित हिन्दू और हिदुत्व का कारवां चल पडा चल पडा और आज भी चाहे अपने बिगडे रूप में ही सही बेशर्मी के साथ चला ही जारहा है : चला ही जारहा है |
इन बातों के बाद भी श्री विश्वमय पति जी प्रोफेसर साहब जैसे महान काल दृष्टा [ [ पुराने काल के : सतः युग अगर ऐसा कोई युग था भी : के मंत्र -दृष्टा ऋषियों के के सामान ] ] सभी विद्वानों से मेरा प्रश्न यथावत यक्ष -प्रश्न के रूप में उत्तर प्राप्ति की आशा-दुर्षा केरूप में जीवित है ,जीवित रहेगा ||
इसी बहाने के निशाने अभी और भी हो सकते हैं परन्तु पहले पहला निशाना
चिट्ठा::अन्योनास्ति
कालचक्र कीझरोखा सेचौपाल के

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